अध्याय 12
पिछली बार हमनें जाना था कि हर ग्रह की दशा की अवधि निश्चित है। जैसे सूर्य की छह साल, चंद्र की 10 साल, शनि की 19 साल आदि। कुल दशा अवधि 120 वर्ष की होती है। आपको मालूम है कि जन्म के समय चन्द्र जिस ग्रह के नक्षत्र में होता है, उस ग्रह से दशा प्रारम्भ होती है। दशा कितने वर्ष रह गयी इसके लिए सामान्य अनुपात का इस्तेमाल किया जाता है।
माना कि जन्म के समय चन्द्र कुम्भ राशि के 10 अंश पर था। हम पिछले बार की तालिका से जानते हैं कि कुम्भ की 6 अंश 40 कला से 20 अंश तक शतभिषा नक्षत्र होता है। अब अगर चन्द्र कुम्भ के 10 अंश पर है, इसका मतलब चन्द्र शतभिषा नक्षत्र की 3 अंश 20 कला पार कर चुका है और 10 अंश पार करना बाकी है। राहु की कुल दशा अवधि 18 वर्ष होती है। अब अनुपात के हिसाब से -
अगर 13 अंश 20 कला बराबर हैं 18 वर्ष के, तो
3 अंश 20 कला बराबर होंगे = 18 / 13 अंश 20 कला X 3 अंश 20 कला
= 4.5 वर्ष
= 4 वर्ष 6 माह
अत: हम कह सकते हैं कि जन्म के समय राहु की दशा 4 वर्ष 6 माह बीत चुकी थी। चंकि राहु की कुल दशा 18 वर्ष की होती है अत: 13 वर्ष 6 माह की दशा रह गई थी।
3 अंश 20 कला बराबर होंगे = 18 / 13 अंश 20 कला X 3 अंश 20 कला
= 4.5 वर्ष
= 4 वर्ष 6 माह
अत: हम कह सकते हैं कि जन्म के समय राहु की दशा 4 वर्ष 6 माह बीत चुकी थी। चंकि राहु की कुल दशा 18 वर्ष की होती है अत: 13 वर्ष 6 माह की दशा रह गई थी।
जन्म के समय बीत चुकी दशा को भुक्त दशा और रह गई दशा को भोग्य दशा (balance of dasa) कहते हैं। एक बार फिर बता दूं कि पंचाग आदि में विंशोत्तरी दशा की तालिकाएं दी हुई होती हैं अत: हाथ से गणना की आवश्यकता नहीं होती।
जैसा कि पहले बताया गया, हर ग्रह की महादशा में फिर से नव ग्रह की अन्तर्दशा होती हैं। हर अन्तर्दशा में फिर से नव ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा और प्रत्यन्तर्दशा के अन्दर सूक्ष्म दशाएं होती हैं। जिस ग्रह की महादशा होती है, उसकी महादशा में सबसे पहले अन्तर्दशा उसी ग्रह की होती है। उसके बाद उस ग्रह की दशा आती है जो कि दशाक्रम में उसके बाद निर्धारित हा। उदाहरण के तौर पर, राहु की महादशा में सबसे पहले राहु की खुद की अन्तर्दशा आएगी। फिर गुरूवार की, फिर शनि की इत्यादि।
अन्तर्दशा की गणना भी सामान्य अनुपात से ही की जाती है। जैसे राहु की महादशा कुल 18 वर्ष की होती है। अत: राहु की महादशा में राहु की अन्तर्दशा 18 / 120 X 18 = 2.7 वर्ष यानि 2 वर्ष 8 माह 12 दिन की होगी। इसी प्रकार राहु में गुरु की अन्तर्दशा 18/ 120 X 16 = 2.4 यानि 2 वर्ष 4 माह 24 दिन की होगी।
इस गणना को ठीक से समझना आवश्यक है। इस बार के लिए बस इतना ही।
अध्याय 13
इस बार हम जानेंगे की दशाफल का निर्धारण कैसे करें। विंशोत्तरी दशा काल निर्धारण का अति महत्वपूर्ण औजार है। दशाफल अर्थात किस दशा में हमें क्या फल मिलेगा। दशाफल निर्धारण के लिए कुछ बातें ध्यान रखने योग्य हैं -
1- सर्वप्रथम तो यह कि किसी भी मनुष्य को वह ही फल मिल सकता है जो कि उसकी कुण्डली में निर्धारित हो। उदाहरण के तौर पर अगर किसी की कुण्डली में विवाह का योग नहीं है तो दशा कितनी भी विवाह देने वाली हो, विवाह नहीं हो सकता।
1- सर्वप्रथम तो यह कि किसी भी मनुष्य को वह ही फल मिल सकता है जो कि उसकी कुण्डली में निर्धारित हो। उदाहरण के तौर पर अगर किसी की कुण्डली में विवाह का योग नहीं है तो दशा कितनी भी विवाह देने वाली हो, विवाह नहीं हो सकता।
2- कितना फल मिलेगा यह ग्रह की शुभता और अशुभता पर निर्भर करेगा। ग्रहों की शुभता और अशुभता कैसे जानें इसकी चर्चा हम 'फलादेश के सामान्य नियम' शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके हैं, जहां हमनें 15 नियम दिए थे। उदाहरण के तौर पर अगर किसी दशा में नौकरी मिलने का योग है और दशा का स्वामी सभी 15 दिए हुए नियमों के हिसाब से शुभ है तो नौकरी बहुत अच्छे वेतन की मिलेगी। ग्रह शुभ नहीं है तो नौकरी मिली भी तो तनख्वाह अच्छी नहीं होगी।
3- कोई भी दशा पूरी तरह से अच्छी या बुरी नहीं होती है। जैसे किसी व्यक्ति को किसी दशा में बहुत अच्छी नौकरी मिलती है परन्तु उसके पिता की मृत्यु हो जाती है तो दशा को अच्छा कहेंगे या बुरा? इसलिये दशा को अच्छा या बुरा मानकर फलादेश करने की बजाय यह देखना चाहिए कि उस दशा में क्या क्या फल मिल सकते हैं।
किसी दशा में क्या फल मिलेगा?
दशाफल महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तर्दशा स्वामी ग्रहों पर निर्भर करता है। ग्रहों कि निम्न स्थितियों को देखना चाहिए और फिर मिलाजुला कर फल कहना चाहिए -
1- ग्रह किस भाव में बैठा है। ग्रह उस भाव का फल देते हैं जहां वे बैठै होते हैं। यानी अगर कोई ग्रह सप्तम भाव में स्थित है और जातक की विवाह की आयु है तो उस ग्रह की दशा विवाह दे सकती है, यदि उसकी कुण्डली में विवाह का योग है।
2- ग्रह अपने कारकत्व के हिसाब से भी फल देते हैं। जैस सूर्य सरकारी नौकरी का कारक है अत: सूर्य की दशा में सरकारी नौकरी मिल सकती है। इसी तरह शुक्र विवाह का कारक है। समान्यत: देखा गया है कि दशा में भाव के कारकत्व ग्रह के कारकत्व से ज्यादा मिलते हैं।
3- ग्रह किन ग्रहों को देख रहा है और किन ग्रहों से दृष्ट है। दृष्टि का असर भी ग्रहों की दशा के समय मिलता है। दशा के समय दृष्ट ग्रहों असर भी मिला हुआ होगा।
4- सबसे महत्वपर्ण और अक्सर भूला जाने वाला तथ्य यह है कि ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी से बहुत अधिक प्रभावित रहता है। ग्रह वह सभी फल भी देता है जो उपरोक्त तीन बिन्दुओं के आधार पर ग्रह का नक्षत्र स्वामी देगा। उदाहरण के तौर पर अगर को ग्रह 'अ' किसी ग्रह 'ब' के नक्षत्र में है और ग्रह 'ब' सप्तम भाव में बैठा है। ऐसी स्थिति में ग्रह 'अ' कि दशा में भी विवाह हो सकता है, क्योंकि सप्तम भाव विवाह का स्थान है।
5- राहु और केतु उन ग्रहों का फल देते हैं जिनके साथ वे बैठे होते हैं और दृष्टि आदि से प्रभावित होते हैं।
6- महादशा का स्वामी ग्रह अपनी अन्तर्दशा में अपने फल नहीं देता। इसके स्थान पर वह पूर्व अन्तर्दशा के स्वयं के अनुसार संशोधित फल देता है।
7- उस अन्तर्दशा में महादशा से संबन्धित सामान्यत: शुभ फल नहीं मिलते जिस अन्तर्दशा का स्वामी महादशा के स्वामी से 6, 8, या 12 वें स्थान में स्थित हो।
8- अंतर्दशा में सिर्फ वही फल मिल सकते हैं जो कि महादशा दे सके। इसी तरह प्रत्यन्तर्दशा में वही फल मिल सकते हैं जो उसकी अन्तर्दशा दे सके।