ब्लॉग आर्काइव

rasifal kuchha dhram se sambandhita लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
rasifal kuchha dhram se sambandhita लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

 बार पहले हम राशियों के बारे में जानते हैं। राशियों के स्‍वभाव इस प्रकार हैं- बार पहले हम ग्रहों के बारे में जानते हैं। नवग्रह के कारकत्‍व एवं स्‍वभाव इस प्रकार हैं - पहले हम भाव से जुड़े हुए कुछ महत्‍वपूर्ण संज्ञाओं को जानते हैं -   भाव संज्ञाएं

अध्याय 6

पिछले अंक में हमनें भाव कारकत्‍व के बारे में जाना। हमने यह भी जाना कि कारकात्‍व एवं स्‍वभाव में क्‍या फर्क होता है। इस बार पहले हम राशियों के बारे में जानते हैं। राशियों के स्‍वभाव इस प्रकार हैं- 

मेष – पुरुष जाति, चरसंज्ञक, अग्नि तत्व, पूर्व दिशा की मालिक, मस्तक का बोध कराने वाली, पृष्ठोदय, उग्र प्रकृति, लाल-पीले वर्ण वाली, कान्तिहीन, क्षत्रियवर्ण, सभी समान अंग वाली और अल्पसन्तति है। यह पित्त प्रकृतिकारक है। इसका प्राकृतिक स्वभाव साहसी, अभिमानी और मित्रों पर कृपा रखने वाला है।
 
वृष – स्त्री राशि, स्थिरसंज्ञक, भूमितत्व, शीतल स्वभाव, कान्ति रहित, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, वातप्रकृति, रात्रिबली, चार चरण वाली, श्वेत वर्ण, महाशब्दकारी, विषमोदयी, मध्य सन्तति, शुभकारक, वैश्य वर्ण और शिथिल शरीर है। यह अर्द्धजल राशि कहलाती है। इसका प्राकृतिक स्वभाव स्वार्थी, समझ-बूझकर काम करने वाली और सांसारिक कार्यों में दक्ष होती है। इससे कण्ठ, मुख और कपोलों का विचार किया जाता है।
 
मिथुन – पश्चिम दिशा की स्वामिनी, वायुतत्व, तोते के समान हरित वर्ण वाली, पुरुष राशि, द्विस्वभाव, विषमोदयी, उष्ण, शूद्रवर्ण, महाशब्दकारी, चिकनी, दिनबली, मध्य सन्तति और शिथिल शरीर है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विद्याध्ययनी और शिल्पी है। इससे हाथ, शरीर के कंधों और बाहुओं का विचार किया जाता है।
 
कर्क – चर, स्त्री जाति, सौम्य और कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रक्त-धवल मिश्रित वर्ण, बहुचरण एवं संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशीलता, लज्जा, और कार्यस्थैर्य है। इससे पेट, वक्षःस्थल और गुर्दे का विचार किया जाता है।
 
सिंह – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, अग्नितत्व, दिनबली, पित्त प्रकृति, पीत वर्ण, उष्ण स्वभाव, पूर्व दिशा की स्वामिनी, पुष्ट शरीर, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति, भ्रमणप्रिय और निर्जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वरूप मेष राशि जैसा है, पर तो भी इसमें स्वातन्त्र्य प्रेम और उदारता विशेष रूप से विद्यमान है। इससे हृदय का विचार किया जाता है।
 
कन्या  पिंगल वर्ण, स्त्रीजाति, द्विस्वभाव, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, वायु और शीत प्रकृति, पृथ्वीतत्व और अल्पसन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव मिथुन जैसा है, पर विशेषता इतनी है कि अपनी उन्नति और मान पर पूर्ण ध्यान रखने की यह कोशिश करती है। इससे पेट का विचार किया जाता है।

तुला  पुरुष जाति, चरसंज्ञक, वायुतत्व, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, अल्पसंतान वाली, श्यामवर्ण शीर्षोदयी, शूद्रसंज्ञक, दिनबली, क्रूर स्वभाव और पाद जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, ज्ञानप्रिय, कार्य-सम्पादक और राजनीतिज्ञ है। इससे नाभि के नीचे के अंगों का विचार किया जाता है।

वृश्चिक – स्थिरसंज्ञक, शुभ्रवर्ण, स्त्रीजाति, जलतत्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, कफ प्रकृति, बहुसन्तति, ब्राह्मण वर्ण और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव दम्भी, हठी, दृढ़प्रतिज्ञ, स्पष्टवादी और निर्मल है। इससे शरीर के क़द और जननेन्द्रियों का विचार किया जाता है।

धनु – पुरुष जाति, कांचन वर्ण, द्विस्वभाव, क्रूरसंज्ञक, पित्त प्रकृति, दिनबली, पूर्व दिशा की स्वामिनी, दृढ़ शरीर, अग्नि तत्व, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादा का इच्छुक है। इससे पैरों की सन्धि और जंघाओं का विचार किया जाता है।

मकर  चरसंज्ञक, स्त्री जाति, पृथ्वीतत्व, वात प्रकृति, पिंगल वर्ण, रात्रिबली, वैश्यवर्ण, शिथिल शरीर और दक्षिण दिशा की स्वामिनी है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उच्च दशाभिलाषी है। इससे घुटनों का विचार किया जाता है।

कुम्भ  पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, वायु तत्व, विचित्र वर्ण, शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति, दिनबली, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, उष्ण स्वभाव, शूद्र वर्ण, क्रूर एवं मध्य संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, शान्तचित्त, धर्मवीर और नवीन बातों का आविष्कारक है। इससे पेट की भीतरी भागों का विचार किया जाता है।

मीन – द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्व, रात्रिबली, विप्रवर्ण, उत्तरदिशा की स्वामिनी और पिंगल वर्ण है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उत्तम, दयालु और दानशील है। यह सम्पूर्ण जलराशि है। इससे पैरों का विचार किया जाता है।

 
राशियों के स्वभाव जानने के बाद हम अब अगली बार ग्रहों के कारकत्व और स्वभाव के बारे में जानेंगे।

अध्याय 7
पिछले अंक में हमनें राशि के स्‍वाभाव के बारे में जाना। हमने यह भी जाना कि कारकात्‍व एवं स्‍वभाव में क्‍या फर्क होता है। इस बार पहले हम ग्रहों के बारे में जानते हैं। नवग्रह के कारकत्‍व एवं स्‍वभाव इस प्रकार हैं -
सूर्य – 
स्‍वभाव: चौकौर, छोटा कद, गहरा लाल रंग, पुरुष, क्षत्रिय जाति, पाप ग्रह, सत्वगुण प्रधान, अग्नि तत्व, पित्त प्रकृति है।
कारकत्‍व: राजा, ज्ञानी, पिता, स्‍वर्ण, तांबा, फलदार वृक्ष, छोटे वृक्ष, गेंहू, हड्डी, सिर, नेत्र, दिमाग़ व हृदय पर अपना प्रभाव रखता है। 

चन्द्र – 
स्‍वभाव: गोल, स्त्री, वैश्य जाति, सौम्य ग्रह, सत्वगुण, जल तत्व, वात कफ प्रकृति है।
कारकत्‍व: सफेद रंग, माता, कलाप्रिय, सफेद वृक्ष, चांदी, मिठा, चावल, छाती, थूक, जल, फेंफड़े तथा नेत्र-ज्योति पर अपना प्रभाव रखता है। 

मंगल – 
स्‍वभाव: तंदुरस्‍त शरीर, चौकौर, क्रूर, आक्रामक, पुरुष, क्षत्रिय, पाप, तमोगुणी, अग्नितत्व, पित्त प्रकृति है।
कारकत्‍व: लाल रंग, भाई बहन, युद्ध, हथियार, चोर, घाव, दाल, पित्त, रक्त, मांसपेशियाँ, ऑपरेशन, कान, नाक आदि का प्रतिनिधि है। 

बुध – 
स्‍वभाव: दुबला शरीर, नपुंसक, वैश्य जाति, समग्रह, रजोगुणी, पृथ्वी तत्व व त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) प्रकृति है।
कारकत्‍व: हरा रंग, चना, मामा, गणित, व्‍यापार, वायुरोग, वाक्, जीभ, तालु, स्वर, गुप्त रोग, गूंगापन, आलस्य व कोढ़ का प्रतिनिधि है। 

बृहस्पति – 
स्‍वभाव: भारी मोटा शरीर, पुरुष, ब्राह्मण, सौम्य, सत्वगुणी, आकाश तत्व व कफ प्रकृति है।
कारकत्‍व: पीला रंग, वेद, धर्म, भक्ति, स्‍वर्ण, ज्ञानी, गरु, चर्बी, कफ, सूजन, घर, विद्या, पुत्र, पौत्र, विवाह तथा गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है। 

शुक्र – 
स्‍वभाव: सुन्‍दर शरीर, स्त्री, ब्राह्मण, सौम्य, रजोगुणी, जल तत्व व कफ प्रकृति है।
कारकत्‍व: सफेद रंग, सुन्‍दर कपडे, सुन्‍दरता, पत्‍नी, प्रेम सम्‍बन्‍ध, वीर्य, काम-शक्ति, वैवाहिक सुख, काव्य, गान शक्ति, आँख व स्त्री का प्रतिनिधि है। 

शनि – 
स्‍वभाव: काला रंग, धसी हुई आंखें, पतला लंबा शरीर, क्रूर, नपुंसक, शूद्रवर्ण, पाप, तमोगुणी, वात कफ प्रकृति व वायु तत्व प्रधान है।
कारकत्‍व: काला रंग, चाचा, ईर्ष्‍या, धूर्तता, चोर, जंगली जानवर, नौकर, आयु, तिल, शारीरिक बल, योगाभ्यास, ऐश्वर्य, वैराग्य, नौकरी, हृदय रोग आदि का प्रतिनिधि है। 

राहु व केतु – 
स्‍वाभाव: पाप ग्रह, चाण्डाल, तमोगुणी, वात पित्त प्रकृति व नपुंसक हैं।
कारकत्‍व: गहरा धुंए जैसा रंग, पितामह मातामह, धोखा, दुर्घटना, झगडा, चोरी, सर्प, विदेश, चर्म रोग, पैर, भूख व उन्नति में बाधा के प्रतिनिधि हैं। 
राहु का स्‍वाभाव शनि की तरह और केतु का स्‍वाभाव मंगल की तरह होता है। 


 भाव, ग्रह और राशि की अब आपको पर्याप्‍त जानकारी हो चुकी है और आप शुरूआती भविष्‍यफल के लिए तैयार हैं। एक उदाहरण से जानते हैं कि इस जानकारी का प्रयोग भविष्‍यफल जानने के लिए कैसे किया जाय। अपनी उदाहरण कुण्‍डली एक बार फिर देखते हैं। माना की हमें कुण्‍डली वाले के रंग रूप के विषय में जानना है। अब हम जानते हैं कि रंग रूप के लिए विचारणीय भाव प्रथम भाव है। प्रथम भाव, जिसे लग्‍न भी कहते हैं, का स्‍वामी शनि है क्‍योंकि प्रथव भाव में ग्‍यारह नम्‍बर की राशि अर्थात कुम्‍भ राशि पड़ी है और कुम्‍भ राशि का स्‍वामी शनि होता है। तो कुण्‍डली वाले का रूप रंग शनि से प्रभावित रहेगा। शनि सूर्य और बुध के साथ सप्‍तम भाव में सिंह राशि में स्थित है। सिंह राशि का स्‍वामी भी सूर्य है अत: रंग रूप पर सूर्य का प्रभाव भी रहेगा। शनि का स्‍वभाव - काला रंग, धसी हुई आंखें, पतला लंबा शरीर, क्रूर, नपुंसक, शूद्रवर्ण, पाप, तमोगुणी, वात कफ प्रकृति व वायु तत्व प्रधान है। और सूर्य का स्‍वाभाव - चौकौर, छोटा कद, गहरा लाल रंग, पुरुष, क्षत्रिय जाति, पाप ग्रह, सत्वगुण प्रधान, अग्नि तत्व, पित्त प्रकृति है। अत: जातक पर इन दोनों का मिला जुला स्‍वाभाव होगा।

 अध्याय 8
 
किसी भी अन्‍य विषय की तरह ज्‍योतिष की अपनी शब्‍दावली है। ज्‍योतिष के लेखों को, ज्‍योतिष की पुस्‍तकों को आदि समझने के लिए शब्‍दावली को जानना जरूरी है। सबसे पहले हम भाव से जुड़े हुए कुछ महत्‍वपूर्ण संज्ञाओं को जानते हैं -  
भाव संज्ञाएं
केन्‍द्र - एक, चार, सात और दसवें भाव को एक साथ केन्‍द्र भी कहते हैं।
त्रिकोण - एक, पांच और नौवें भाव को एक साथ त्रिकोण भी कहते हैं।
उपचय - एक, तीन, छ:, दस और ग्‍यारह भावों को एक साथ उपचय कहते हैं।

मारक - दो और सात भाव मा‍रक कहलाते हैं।
दु:स्‍थान - छ:, आठ और बारह भाव दु:स्‍थान या दुष्‍ट-स्‍थान कहलाते हैं।
क्रूर स्‍थान - तीन, छ:, ग्‍यारह

राशि संज्ञाएं अग्नि आदि संज्ञाएं 
अग्नि - मेष सिंह धनु
पृथ्‍वी - वृषभ कन्या मकर
वायु - मिथुन तुला कुम्भ
जल - कर्क वृश्चिक मीन
नोट: मेषादि द्वादश राशियां अग्नि, पृथ्‍वी, वायु और जल के क्रम में होती हैं। 
 
चरादि संज्ञाएं
चर – मेष,कर्क, तुला,मकर
स्थिर  वृषभ,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ
द्विस्‍वाभाव – मिथुन,कन्या,धनु,मीन

नोट: मेषादि द्वादश राशियां चर, स्थिर और द्विस्‍वाभाव के क्रम में होती हैं। 

पुरुष एवं स्‍त्री संज्ञक राशियां 
पुरुष  मेष,मिथुन,सिंह,तुला,धनु,कुम्भ
स्‍त्री – वृषभ,कर्क,कन्या,वृश्चिक,मकर,मीन

नोट: सम राशियां स्‍त्री संज्ञक और विषम राशियां पुरुष संज्ञक होती हैं।

ज्योतिष की पुस्तकों, लेखों आदि को पढ़ते वक्त इस तरह के शब्द लगातार इस्तेमाल किए जाते हैं,इसलिए इस शब्दावली को कंठस्थ कर लेना चाहिए। ताकि पढ़ते वक्त बात ठीक तरह से समझ आए। अगले पाठ में कुछ और महत्वपूर्ण जानकारियों पर बात करेंगे।





ग्रहों के नाम मित्र शत्रु सम ग्रहों की भावगत स्थिति उ ग्रहों की राशिगत स्थिति ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्‍व एवं उनका आपसी संबध है। सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्‍व इस प्रकार हैं -

अध्याय 3

पिछली बार हमने प्रत्येक ग्रह की उच्च नीच और स्वग्रह राशि के बारे में जाना था। हमनें पढ़ा था कि राहु और केतु की कोई राशि नहीं होती और राहु-केतु की उच्च एवं नीच राशियां भी सभी ज्योतिषी प्रयोग नहीं करते। लेकिन, फलित ज्योतिष में ग्रहों के मित्र, शत्रु ग्रह के बारे में जानना भी अति आवश्यक है। इसलिए इस बार इनकी जानकारी।
ग्रहों के नाम मित्र शत्रु सम


सूर्य चन्द्र, मंगल, गुरू शनि, शुक्र बुध
चन्द्रमा सूर्य, बुध कोई नहीं शेष ग्रह
मंगल सूर्य, चन्द्र, गुरू बुध शेष ग्रह
बुध सूर्य, शुक्र चंद्र शुक्र, शनि
गुरू सुर्य, चंन्‍द्र, मंगल शुक्र, बुध शनि
शुक्र शनि, बुध शेष ग्रह गुरू, मंगल
शनि बुध, शुक्र शेष ग्रह गुरु
राहु, केतु शुक्र, शनि सूर्य, चन्‍द्र, मंगल गुरु, बुध

 
यह तालिका अति महत्वपूर्ण है और इसे भी कण्ठस्थ् करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि यह तालिका बहुत बड़ी लगे तो डरने की कोई जरुरत नहीं। तालिका समय एवं अभ्याकस के साथ खुद व खुद याद हो जाती है। 
 
मोटे तौर पर वैसे हम ग्रहों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, जो कि एक दूसरे के शत्रु हैं -

भाग 1 - सूर्य, चंद्र, मंगल और गुरु
भाग 2 - बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु

 
यह याद रखने का आसान तरीका है परन्तु हर बार सही नहीं है। उपर वाली तालिका कण्ठस्थ हो तो ज्यादा बेहतर है।

 
मित्र-शत्रु का तात्पर्य यह है कि जो ग्रह अपनी मित्र ग्रहों की राशि में हो एवं मित्र ग्रहों के साथ हो, वह ग्रह अपना शुभ फल देगा। इसके विपरीत कोई ग्रह अपने शत्रु ग्रह की राशि में हो या शत्रु ग्रह के साथ हो तो उसके शुभ फल में कमी आ जाएगी।

 
चलिए एक उदाहर लेते हैं। उपर की तालिका से यह देखा जा सकता है कि सूर्य और शनि एक दूसरे के शत्रु ग्रह हैं। अगर सूर्य शनि की राशि मकर या कुंभ में स्थित है या सूर्य शनि के साथ स्थित हो तो सूर्य अपना शुभ फल नहीं दे पाएगा। इसके विपरीत यदि सूर्य अपने मित्र ग्रहों च्ंद्र, मंगल, गुरु की राशि में या उनके सा‍थ स्थित हो तो सामान्‍यत वह अपना शुभ फल देगा

 
इस अध्याय में बस इतना ही। आगे जानेंगे कुण्डली का स्वरुप, ग्रह-भाव-राशि का कारकत्वक एवं ज्योतिष में उनका प्रयोग आदि।

अध्याय 4
 
इस अध्याय में हम जानेंगे की कुण्‍डली में ग्रह एवं राशि इत्‍यादि को कैसे दर्शाया जाता है। साथ ही लग्‍न एवं अन्‍य भावों के बारे में भी जानेंगे। कुण्‍डली को जन्‍म समय के ग्रहों की स्थिति की तस्‍वीर कहा जा सकता है। कुण्‍डली को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि जन्‍म समय में विभिन्‍न ग्रह आकाश में कहां स्थित थे। भारत में विभिन्‍न प्रान्‍तों में कुण्‍डली को चित्रित करने का अलग अलग तरीका है। मुख्‍यत: कुण्‍डली को उत्‍तर भारत, दक्षिण भारत या बंगाल में अलग अलग तरीके से दिखाया जाता है। हम सिर्फ उत्‍तर भारतीय तरीके की चर्चा करेंगे।
कुण्‍डली से ग्रहों की राशि में स्थिति एवं ग्रहों की भावों में स्थिति पता चलती है। ग्रह एवं राशि की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं और भाव की चर्चा हम आगे करेंगे। उत्तर भारत की कुण्डली में लग्न राशि पहले स्थान में लिखी जाती है तथा फिर दाएं से बाएं राशियों की संख्या को स्थापित कर लेते हैं। अर्थात राशि स्थापना (anti-clock wise) होती हैं तथा राशि का सूचक अंक ही अनिवार्य रूप से स्थानों में भरा जाता है। एक उदाहरण कुण्‍डली से इसे समझते हैं।

भाव थोडी देर के लिए सारे अंको और ग्रहों के नाम भूल जाते हैं। हमें कुण्‍डली में बारह खाने दिखेंगे, जिसमें से आठ त्रिकोणाकार एवं चार आयताकार हैं। चार आयतों में से सबसे ऊपर वाला आयत लग्‍न या प्रथम भाव कहलाता है। उदाहरण कुण्‍डली में इसमें रंग भरा गया है। लग्‍न की स्थिति कुण्‍डली में सदैव निश्चित है। लग्‍न से एन्‍टी क्‍लॉक वाइज जब गिनना शुरू करें जो अगला खाना द्वितीय भाव कहलाजा है। उससे अगला खाना तृतीय भाव कहलाता है और इसी तरह आगे की गिनती करते हैं। साधारण बोलचाल में भाव को घर या खाना भी कह देते हैं। अ्ंग्रेजी में भाव को हाउस (house) एवं लग्‍न को असेन्‍डेन्‍ट (ascendant) कहते हैं। भावेशकुण्‍डली में जो अंक लिखे हैं वो राशि बताते हैं। उदाहरण कुण्‍डली में लग्‍न के अन्‍दर 11 नम्‍बर लिखा है अत: कहा जा सकता है की लग्‍न या प्रथम भाव में ग्‍यारह अर्थात कुम्‍भ राशि पड़ी है। इसी तरह द्वितीय भाव में बारहवीं अर्थात मीन राशि पड़ी है। हम पहले से ही जानते हैं कि कुम्‍भ का स्‍वामी ग्रह शनि एवं मीन का स्‍वामी ग्रह गुरु है। अत: ज्‍योतिषीय भाषा में हम कहेंगे कि प्रभम भाव का स्‍वामी शनि है (क्‍योंकि पहले घर में 11 लिखा हुआ है)। भाव के स्‍वामी को भावेश भी कहते हैं। प्रथम भाव के स्‍वामी को प्रथमेश या लग्‍नेश भी कहते हैं। इसी प्रकार द्वितीय भाव के स्‍वामी को द्वितीयेश, तृतीय भाव के स्‍वामी को तृतीयेश इत्‍यादि कहते हैं। 
ग्रहों की भावगत स्थिति उदाहरण कुण्‍डली में उपर वाले आयत से एन्‍टी क्‍लॉक वाइज गिने तो शुक्र एवं राहु वाले खाने तक पहुंचने तक हम पांच गिन लेंगे। अत: हम कहेंगे की राहु एवं शुक्र पांचवे भाव में स्थित हैं। इसी प्रकार चंद्र एवं मंगल छठे, शनि - सूर्य-बुध सातवें, और गुरु-केतु ग्‍यारवें भाव में स्थित हैं। यही ग्रहो की भाव स्थिति है। 
ग्रहों की राशिगत स्थिति ग्रहों की राशिगत स्थिति जानना आसान है। जिस ग्रह के खाने में जो अंक लिखा होता है, वही उसकी राशिगत स्थिति होती है। उदाहरण कुण्‍डली में शुक्र एवं राहु के आगे 3 लिखा है अत: शुक्र एवं राहु 3 अर्थात मिथुन राशि में स्थित हैं। इसी प्रकार च्रद्र एवं मंगल के आगे चार लिखा है अत: वे कर्क राशि में स्थित हैं जो कि राशिचक्र की चौथी राशि है।
याद रखें कि ग्रह की भावगत स्थिति एवं राशिगत स्थिति दो अलग अलग चीजें हैं। इन्हें लेकर कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।


अध्याय 5 
ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्‍व एवं उनका आपसी संबध है।
 
ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है, जहाँ ग्रह विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण होता है।
 
ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'स्‍वभाव' होता है। इसके अलाव ग्रहों का 'कारकत्‍व' भी होता है। राशियों का केवल 'स्‍वभाव' एवं भावों का केवल 'कारकत्‍व' होता है। स्‍वभाव और कारकत्‍व में फर्क समझना बहुत जरूरी है।
 
सरल शब्‍दों में 'स्‍वभाव' 'कैसे' का जबाब देता है और 'कारकत्‍व' 'क्‍या' का जबाब देता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है। ऐसी स्थिति में सूर्य क्‍या परिणाम देगा?
 
नीचे भाव के कारकत्‍व की तालिका दी है, जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का कारक है। अत: सूर्य क्‍या देगा, इसका उत्‍तर मिला की सूर्य 'व्‍यवसाय' देगा। वह व्‍यापार या व्‍यवसाय कैसा होगा - सूर्य के स्‍वाभाव और मेष राशि के स्‍वाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: व्‍यवसाय आक्रामक हो सकता है। दूसरे शब्‍दों में जातक सेना या खेल के व्‍यवयाय में हो सकता है, जहां आक्रामकता की जरूरत होती है। इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के स्‍वाभाव एवं कारकत्‍व को मिलाकर फलकथन किया जाता है।
 
दुनिया की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है। चूँकि दुनिया की सभी चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकत्‍व के बारे में चर्चा करेंगे।
 
सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्‍व इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।

द्वितीय भाव : दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।

तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।

चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।

पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।

षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।

सप्तम भाव : विवाह, पत्‍नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।

अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।

नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।

दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।

एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।

द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।
इस बार इतना ही। ग्रहों का स्‍वभाव/ कारकत्‍व व राशियों के स्‍वाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करेंगे।


पहला वर्गीकरण शुभ ग्रह और पाप ग्रह का इस प्रकार है:- ग्रहों की उच्‍चादि राशि स्थिति इस प्रकार है - ऊपर की तालिका में कुछ ध्‍यान देने वाले बिन्‍दु इस प्रकार हैं - 1 ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है। लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये?

अध्याय 1

ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है। लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये?

कुछ जिज्ञासु मेहनत करके किसी ज्यातिषी को पढ़ाने के लिये राज़ी तो कर लेते हैं, लेकिन गुरूजी कुछ इस तरह ज्योतिष पढ़ाते हैं कि जिज्ञासु ज्योतिष सीखने की बजाय भाग खड़े होते हैं। बहुत से पढ़ाने वाले ज्योतिष की शुरुआत कुण्डली-निर्माण से करते हैं। ज़्यादातर जिज्ञासु कुण्डली-निर्माण की गणित से ही घबरा जाते हैं। वहीं बचे-खुचे “भयात/भभोत” जैसे मुश्किल शब्द सुनकर भाग खड़े होते हैं। 
अगर कुछ छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर किया जाए, तो आसानी से ज्योतिष की गहराइयों में उतरा जा सकता है। ज्योतिष सीखने के इच्छुक नये विद्यार्थियों को कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए-
  • शुरूआत में थोड़ा-थोड़ा पढ़ें।
  • जब तक पहला पाठ समझ में न आये, दूसरे पाठ या पुस्तक पर न जायें।
  • जो कुछ भी पढ़ें, उसे आत्मसात कर लें।
  • बिना गुरू-आज्ञा या मार्गदर्शक की सलाह के अन्य ज्योतिष पुस्तकें न पढ़ें।
  • शुरूआती दौर में कुण्डली-निर्माण की ओर ध्यान न लगायें, बल्कि कुण्डली के विश्लेषण पर ध्यान दें।
  • शुरूआती दौर में अपने मित्रों और रिश्तेदारों से कुण्डलियाँ मांगे, उनका विश्लेषण करें।
  • जहाँ तक हो सके हिन्दी के साथ-साथ ज्योतिष की अंग्रेज़ी की शब्दावली को भी समझें।
अगर ज्योतिष सीखने के इच्छुक लोग उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखेंगे, तो वे जल्दी ही इस विषय पर अच्छी पकड़ बना सकते हैं। 
ज्‍योतिष के मुख्‍य दो विभाग हैं - गणित और फलित। गणित के अन्दर मुख्‍य रूप से जन्‍म कुण्‍डली बनाना आता है। इसमें समय और स्‍थान के हिसाब से ग्रहों की स्थिति की गणना की जाती है। दूसरी ओर, फलित विभाग में उन गणनाओं के आधार पर भविष्‍यफल बताया जाता है। इस शृंखला में हम ज्‍यो‍तिष के गणित वाले हिस्से की चर्चा बाद में करेंगे और पहले फलित ज्‍योतिष पर ध्यान लगाएंगे। किसी बच्चे के जन्म के समय अन्तरिक्ष में ग्रहों की स्थिति का एक नक्शा बनाकर रख लिया जाता है इस नक्शे केा जन्म कुण्डली कहते हैं। आजकल बाज़ार में बहुत-से कम्‍प्‍यूटर सॉफ़्टवेयर उपलब्‍ध हैं और उन्‍हे जन्‍म कुण्‍डली निर्माण और अन्‍य गणनाओं के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
 
पूरी ज्‍योतिष नौ ग्रहों, बारह राशियों, सत्ताईस नक्षत्रों और बारह भावों पर टिकी हुई है। सारे भविष्‍यफल का मूल आधार इनका आपस में संयोग है। नौ ग्रह इस प्रकार हैं -
ग्रहअन्‍य नामअंग्रेजी नाम
सूर्यरविसन
चंद्रसोममून
मंगलकुजमार्स
बुध
मरकरी
गुरूबृहस्‍पतिज्‍यूपिटर
शुक्रभार्गववीनस
शनिमंदसैटर्न
राहु
नॉर्थ नोड
केतु
साउथ नोड

आधुनिक खगोल विज्ञान (एस्‍ट्रोनॉमी) के हिसाब से सूर्य तारा और चन्‍द्रमा उपग्रह है, लेकिन भारतीय ज्‍योतिष में इन्‍हें ग्रहों में शामिल किया गया है। राहु और केतु गणितीय बिन्‍दु मात्र हैं और इन्‍हें भी भारतीय ज्‍योतिष में ग्रह का दर्जा हासिल है। 
भारतीय ज्‍योतिष पृथ्‍वी को केन्द्र में मानकर चलती है। राशिचक्र वह वृत्त है जिसपर नौ ग्रह घूमते हुए मालूम होते हैं। इस राशिचक्र को अगर बारह भागों में बांटा जाये, तो हर एक भाग को एक राशि कहते हैं। इन बारह राशियों के नाम हैं- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्‍या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन। इसी तरह जब राशिचक्र को सत्‍ताईस भागों में बांटा जाता है, तब हर एक भाग को नक्षत्र कहते हैं। हम नक्षत्रों की चर्चा आने वाले समय में करेंगे। 
एक वृत्त को गणित में 360 कलाओं (डिग्री) में बाँटा जाता है। इसलिए एक राशि, जो राशिचक्र का बारहवाँ भाग है, 30 कलाओं की हुई। फ़िलहाल ज़्यादा गणित में जाने की बजाय बस इतना जानना काफी होगा कि हर राशि 30 कलाओं की होती है।
 
हर राशि का मालिक एक ग्रह होता है जो इस प्रकार हैं -
राशिअंग्रेजी नाममालिक ग्रह
मेषएरीज़मंगल
वृषभटॉरसशुक्र
मिथुनजैमिनीबुध
कर्ककैंसरचन्द्र
सिंहलियोसूर्य
कन्यावरगोबुध
तुलालिबराशुक्र
वृश्चिकस्कॉर्पियोमंगल
धनुसैजीटेरियसगुरू
मकरकैप्रीकॉर्नशनि
कुम्भएक्वेरियसशनि
मीनपाइसेज़गुरू
इस अध्याय में बस यहीं तक। लेख के अगले क्रम में जानेंगे कि राशि व ग्रहों के क्‍या स्‍वाभाव हैं और उन्हें भविष्‍यकथन के लिए कैसे उपयोग किया जा सकता है।
अध्याय 2

पिछले अध्याय में हमनें राशि, ग्रह एवं राशि स्‍वामियों के बारे में जाना। वह अत्‍यन्‍त ही महत्‍वपूर्ण सूचना थी और उसे कण्‍ठस्‍थ करने की कोशिश करें। इस बार हम ग्रह एवं राशियों के कुछ वर्गीकरण को जानेंगे जो कि फलित ज्‍योतिष के लिए अत्‍यन्‍त ही महत्‍वपूर्ण हैं।  
पहला वर्गीकरण शुभ ग्रह और पाप ग्रह का इस प्रकार है:-
शुभ ग्रह: चन्द्रमा, बुध, शुक्र, गुरू हैं पापी ग्रह: सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु हैं 
साधारणत: चन्‍द्र एवं बुध को सदैव ही शुभ नहीं गिना जाता। पूर्ण चन्‍द्र अर्थात पूर्णिमा के पास का चन्‍द्र शुभ एवं अमावस्‍या के पास का चन्‍द्र शुभ नहीं गिना जाता। इसी प्रकार बुध अगर शुभ ग्रह के साथ हो तो शुभ होता है और यदि पापी ग्रह के साथ हो तो पापी हो जाता है। 
यह ध्‍यान रखने वाली बात है कि सभी पापी ग्रह सदैव ही बुरा फल नहीं देते। न ही सभी शुभ ग्रह सदैव ही शुभ फल देते हैं। अच्‍छा या बुरा फल कई अन्‍य बातों जैसे ग्रह का स्‍वामित्‍व, ग्रह की राशि स्थिति, दृष्टियों इत्‍यादि पर भी निर्भर करता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। 
जैसा कि उपर कहा गया एक ग्रह का अच्‍छा या बुरा फल कई अन्‍य बातों पर निर्भर करता है और उनमें से एक है ग्रह की राशि में स्थिति। कोई भी ग्रह सामान्‍यत अपनी उच्‍च राशि, मित्र राशि, एवं खुद की राशि में अच्‍छा फल देते हैं। इसके विपरीत ग्रह अपनी नीच राशि और शत्रु राशि में बुरा फल देते हैं। 

ग्रहों की उच्‍चादि राशि स्थिति इस प्रकार है -

ग्रह
उच्च राशि
नीच राशि
स्‍वग्रह राशि
1
सूर्य,मेष
तुला
सिंह
2
चन्द्रमा, वृषभ
वृश्चिक
कर्क
3
मंगल, मकर
कर्क
मेष, वृश्चिक
4
बुध, कन्या
मीन
मिथुन, कन्या
5
गुरू, कर्क
मकर
धनु, मीन
6
शुक्र, मीन
कन्या
वृषभ, तुला
7
शनि, तुलामेषमकर, कुम्भ
8
राहु, धनुमिथुन
9
केतु मिथुनधनु

ऊपर की तालिका में कुछ ध्‍यान देने वाले बिन्‍दु इस प्रकार हैं - 1. ग्रह की उच्‍च राशि और नीच राशि एक दूसरे से सप्‍तम होती हैं। उदाहरणार्थ सूर्य मेष में उच्‍च का होता है जो कि राशि चक्र की पहली राशि है और तुला में नीच होता है जो कि राशि चक्र की सातवीं राशि है। 
2. सूर्य और चन्‍द्र सिर्फ एक राशि के स्‍वामी हैं। राहु एवं केतु किसी भी राशि के स्‍वामी नहीं हैं। अन्‍य ग्रह दो-दो राशियों के स्‍वामी हैं। 
3. राहु एवं केतु की अपनी कोई राशि नहीं होती। राहु-केतु की उच्‍च एवं नीच राशियां भी सभी ज्‍योतिषी प्रयोग नहीं करते हैं।

एसिड भाटा रोग / GERD क्या है? एसिड भाटा रोग / GERM के क्या कारण हैं? एसिड भाटा रोग / GERD के लिए घरेलू उपचार

एसिड भाटा रोग / GERD क्या है? एसिड भाटा रोग / GERM के क्या कारण हैं? एसिड भाटा रोग / GERD के लिए घरेलू उपचार एसिड भाटा रोग / GERD क...