अध्याय 3
पिछली बार हमने प्रत्येक ग्रह की उच्च नीच और स्वग्रह राशि के बारे में जाना था। हमनें पढ़ा था कि राहु और केतु की कोई राशि नहीं होती और राहु-केतु की उच्च एवं नीच राशियां भी सभी ज्योतिषी प्रयोग नहीं करते। लेकिन, फलित ज्योतिष में ग्रहों के मित्र, शत्रु ग्रह के बारे में जानना भी अति आवश्यक है। इसलिए इस बार इनकी जानकारी।
ग्रहों के नाम मित्र शत्रु सम
सूर्य चन्द्र, मंगल, गुरू शनि, शुक्र बुध
चन्द्रमा सूर्य, बुध कोई नहीं शेष ग्रह
मंगल सूर्य, चन्द्र, गुरू बुध शेष ग्रह
बुध सूर्य, शुक्र चंद्र शुक्र, शनि
गुरू सुर्य, चंन्द्र, मंगल शुक्र, बुध शनि
शुक्र शनि, बुध शेष ग्रह गुरू, मंगल
शनि बुध, शुक्र शेष ग्रह गुरु
राहु, केतु शुक्र, शनि सूर्य, चन्द्र, मंगल गुरु, बुध
यह तालिका अति महत्वपूर्ण है और इसे भी कण्ठस्थ् करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि यह तालिका बहुत बड़ी लगे तो डरने की कोई जरुरत नहीं। तालिका समय एवं अभ्याकस के साथ खुद व खुद याद हो जाती है।
मोटे तौर पर वैसे हम ग्रहों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, जो कि एक दूसरे के शत्रु हैं -
भाग 1 - सूर्य, चंद्र, मंगल और गुरु
भाग 2 - बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु
भाग 2 - बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु
यह याद रखने का आसान तरीका है परन्तु हर बार सही नहीं है। उपर वाली तालिका कण्ठस्थ हो तो ज्यादा बेहतर है।
मित्र-शत्रु का तात्पर्य यह है कि जो ग्रह अपनी मित्र ग्रहों की राशि में हो एवं मित्र ग्रहों के साथ हो, वह ग्रह अपना शुभ फल देगा। इसके विपरीत कोई ग्रह अपने शत्रु ग्रह की राशि में हो या शत्रु ग्रह के साथ हो तो उसके शुभ फल में कमी आ जाएगी।
चलिए एक उदाहर लेते हैं। उपर की तालिका से यह देखा जा सकता है कि सूर्य और शनि एक दूसरे के शत्रु ग्रह हैं। अगर सूर्य शनि की राशि मकर या कुंभ में स्थित है या सूर्य शनि के साथ स्थित हो तो सूर्य अपना शुभ फल नहीं दे पाएगा। इसके विपरीत यदि सूर्य अपने मित्र ग्रहों च्ंद्र, मंगल, गुरु की राशि में या उनके साथ स्थित हो तो सामान्यत वह अपना शुभ फल देगा
इस अध्याय में बस इतना ही। आगे जानेंगे कुण्डली का स्वरुप, ग्रह-भाव-राशि का कारकत्वक एवं ज्योतिष में उनका प्रयोग आदि।
अध्याय 4
इस अध्याय में हम जानेंगे की कुण्डली में ग्रह एवं राशि इत्यादि को कैसे दर्शाया जाता है। साथ ही लग्न एवं अन्य भावों के बारे में भी जानेंगे। कुण्डली को जन्म समय के ग्रहों की स्थिति की तस्वीर कहा जा सकता है। कुण्डली को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि जन्म समय में विभिन्न ग्रह आकाश में कहां स्थित थे। भारत में विभिन्न प्रान्तों में कुण्डली को चित्रित करने का अलग अलग तरीका है। मुख्यत: कुण्डली को उत्तर भारत, दक्षिण भारत या बंगाल में अलग अलग तरीके से दिखाया जाता है। हम सिर्फ उत्तर भारतीय तरीके की चर्चा करेंगे।
कुण्डली से ग्रहों की राशि में स्थिति एवं ग्रहों की भावों में स्थिति पता चलती है। ग्रह एवं राशि की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं और भाव की चर्चा हम आगे करेंगे। उत्तर भारत की कुण्डली में लग्न राशि पहले स्थान में लिखी जाती है तथा फिर दाएं से बाएं राशियों की संख्या को स्थापित कर लेते हैं। अर्थात राशि स्थापना (anti-clock wise) होती हैं तथा राशि का सूचक अंक ही अनिवार्य रूप से स्थानों में भरा जाता है। एक उदाहरण कुण्डली से इसे समझते हैं।
भाव थोडी देर के लिए सारे अंको और ग्रहों के नाम भूल जाते हैं। हमें कुण्डली में बारह खाने दिखेंगे, जिसमें से आठ त्रिकोणाकार एवं चार आयताकार हैं। चार आयतों में से सबसे ऊपर वाला आयत लग्न या प्रथम भाव कहलाता है। उदाहरण कुण्डली में इसमें रंग भरा गया है। लग्न की स्थिति कुण्डली में सदैव निश्चित है। लग्न से एन्टी क्लॉक वाइज जब गिनना शुरू करें जो अगला खाना द्वितीय भाव कहलाजा है। उससे अगला खाना तृतीय भाव कहलाता है और इसी तरह आगे की गिनती करते हैं। साधारण बोलचाल में भाव को घर या खाना भी कह देते हैं। अ्ंग्रेजी में भाव को हाउस (house) एवं लग्न को असेन्डेन्ट (ascendant) कहते हैं। भावेशकुण्डली में जो अंक लिखे हैं वो राशि बताते हैं। उदाहरण कुण्डली में लग्न के अन्दर 11 नम्बर लिखा है अत: कहा जा सकता है की लग्न या प्रथम भाव में ग्यारह अर्थात कुम्भ राशि पड़ी है। इसी तरह द्वितीय भाव में बारहवीं अर्थात मीन राशि पड़ी है। हम पहले से ही जानते हैं कि कुम्भ का स्वामी ग्रह शनि एवं मीन का स्वामी ग्रह गुरु है। अत: ज्योतिषीय भाषा में हम कहेंगे कि प्रभम भाव का स्वामी शनि है (क्योंकि पहले घर में 11 लिखा हुआ है)। भाव के स्वामी को भावेश भी कहते हैं। प्रथम भाव के स्वामी को प्रथमेश या लग्नेश भी कहते हैं। इसी प्रकार द्वितीय भाव के स्वामी को द्वितीयेश, तृतीय भाव के स्वामी को तृतीयेश इत्यादि कहते हैं।
ग्रहों की भावगत स्थिति उदाहरण कुण्डली में उपर वाले आयत से एन्टी क्लॉक वाइज गिने तो शुक्र एवं राहु वाले खाने तक पहुंचने तक हम पांच गिन लेंगे। अत: हम कहेंगे की राहु एवं शुक्र पांचवे भाव में स्थित हैं। इसी प्रकार चंद्र एवं मंगल छठे, शनि - सूर्य-बुध सातवें, और गुरु-केतु ग्यारवें भाव में स्थित हैं। यही ग्रहो की भाव स्थिति है।
ग्रहों की राशिगत स्थिति ग्रहों की राशिगत स्थिति जानना आसान है। जिस ग्रह के खाने में जो अंक लिखा होता है, वही उसकी राशिगत स्थिति होती है। उदाहरण कुण्डली में शुक्र एवं राहु के आगे 3 लिखा है अत: शुक्र एवं राहु 3 अर्थात मिथुन राशि में स्थित हैं। इसी प्रकार च्रद्र एवं मंगल के आगे चार लिखा है अत: वे कर्क राशि में स्थित हैं जो कि राशिचक्र की चौथी राशि है।
याद रखें कि ग्रह की भावगत स्थिति एवं राशिगत स्थिति दो अलग अलग चीजें हैं। इन्हें लेकर कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।
अध्याय 5
द्वितीय भाव : दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।
तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।
चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।
पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।
षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।
सप्तम भाव : विवाह, पत्नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।
अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।
नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।
दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।
एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।
द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।
ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्व एवं उनका आपसी संबध है।
ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है, जहाँ ग्रह विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण होता है।
ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'स्वभाव' होता है। इसके अलाव ग्रहों का 'कारकत्व' भी होता है। राशियों का केवल 'स्वभाव' एवं भावों का केवल 'कारकत्व' होता है। स्वभाव और कारकत्व में फर्क समझना बहुत जरूरी है।
सरल शब्दों में 'स्वभाव' 'कैसे' का जबाब देता है और 'कारकत्व' 'क्या' का जबाब देता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है। ऐसी स्थिति में सूर्य क्या परिणाम देगा?
नीचे भाव के कारकत्व की तालिका दी है, जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का कारक है। अत: सूर्य क्या देगा, इसका उत्तर मिला की सूर्य 'व्यवसाय' देगा। वह व्यापार या व्यवसाय कैसा होगा - सूर्य के स्वाभाव और मेष राशि के स्वाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: व्यवसाय आक्रामक हो सकता है। दूसरे शब्दों में जातक सेना या खेल के व्यवयाय में हो सकता है, जहां आक्रामकता की जरूरत होती है। इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के स्वाभाव एवं कारकत्व को मिलाकर फलकथन किया जाता है।
दुनिया की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है। चूँकि दुनिया की सभी चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकत्व के बारे में चर्चा करेंगे।
सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्व इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।
द्वितीय भाव : दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।
तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।
चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।
पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।
षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।
सप्तम भाव : विवाह, पत्नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।
अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।
नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।
दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।
एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।
द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।
इस बार इतना ही। ग्रहों का स्वभाव/ कारकत्व व राशियों के स्वाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करेंगे।
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